श्रीदुर्गासप्तशती - पञ्चमोऽध्यायः
॥ श्रीदुर्गासप्तशती - पञ्चमोऽध्यायः ॥
देवताओं द्वारा देवी की स्तुति, चण्ड-मुण्ड के मुख से अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुन कर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
॥ विनियोगः ॥
ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः,महासरस्वती देवता, अनुष्टुप्छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्,सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्, महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।
ॐ इस उत्तर चरित्रके रुद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द है, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सूर्य तत्त्व है और सामवेद स्वरूप है। महासरस्वती की प्रसन्नताके लिये उत्तर चरित्रके पाठमें इसका विनियोग किया जाता है।
॥ ध्यानम् ॥
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
जो अपने करकमलोंमें घण्टा, शूल, हल, शङ्ख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, शरद् ऋतुके शोभासम्पन्न चन्द्रमाके समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकोंकी आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्योंका नाश करनेवाली हैं तथा गौरीके शरीरसे जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वती देवीका मैं निरन्तर भजन करता (करती) हूँ।
"ॐ क्लीं" ऋषिरुवाच॥1॥
पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात्॥2॥
तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥3॥
तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥4॥
हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥5॥
तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥6॥
इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम्।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥7॥
देवा ऊचुः॥8॥
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥9॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥10॥
ऋषि कहते हैं -॥1॥ पूर्वकाल में शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के घमंड में आकर शचीपति इन्द्र के हाथ से तीनों लोकों का राज्य और यज्ञभाग छीन लिये॥2॥ वे ही दोनों सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम और वरुण के अधिकार का भी उपयोग करने लगे। वायु और अग्नि का कार्य भी वे ही करने लगे। उन दोनों ने सब देवताओं को अपमानित, राज्यभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्ग से निकाल दिया। उन दोनों महान् असुरों से तिरस्कृत देवताओं ने अपराजिता देवी का स्मरण किया और सोचा - 'जगदम्बा ने हम लोगों को वर दिया था कि आपत्ति काल में स्मरण करने पर मैं तुम्हारी सब आपत्तियों का तत्काल नाश कर दूँगी'॥3-6॥ यह विचार कर देवता गिरिराज हिमालय पर गये और वहाँ भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे॥7॥
देवता बोले -॥8॥ देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हम लोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते॥9॥ रौद्रा को नमस्कार है। नित्या, गौरी एवं धात्री को बारम्बार नमस्कार है ज्योत्स्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है॥10॥
कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥11॥
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥12॥
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥13॥
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै॥14॥ नमस्तस्यै॥15॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥16॥
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै॥17॥ नमस्तस्यै॥18॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥19॥
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥20॥ नमस्तस्यै॥21॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥22॥
शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। नैर्ऋती (राक्षसों की लक्ष्मी), राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी) - स्वरूपा आप जगदम्बा को बार-बार नमस्कार है॥11॥ दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से पार उतारने वाली), सारा (सबकी सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवी को सर्वदा नमस्कार है॥12॥ अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवी को हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है। जगत्की आधारभूता कृति देवी को बारम्बार नमस्कार है॥13॥ जो देवी सब प्राणियों में विष्णुमाया के नाम से कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥14-16॥ जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥17-19॥ जो देवी सब प्राणियों में बुद्धि रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥20-22॥
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥23॥ नमस्तस्यै॥24॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥25॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥26॥ नमस्तस्यै॥27॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥28॥
या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥29॥ नमस्तस्यै॥30॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥31॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥32॥ नमस्तस्यै॥33॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥34॥
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥35॥ नमस्तस्यै॥36॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥37॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥38॥ नमस्तस्यै॥39॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥40॥
जो देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥23-25॥ जो देवी सब प्राणियों में क्षुधा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥26-28॥ जो देवी सब प्राणियों में छाया रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥29-31॥ जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥32-34॥ जो देवी सब प्राणियों में तृष्णा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥35-37॥ जो देवी सब प्राणियों में क्षान्ति- (क्षमा-) रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥38-40॥
या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥41॥ नमस्तस्यै॥42॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥43॥
या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥44॥ नमस्तस्यै॥45॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥46॥
या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥47॥ नमस्तस्यै॥48॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥49॥
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥50॥ नमस्तस्यै॥51॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥52॥
या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥53॥ नमस्तस्यै॥54॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥55॥
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥56॥ नमस्तस्यै॥57॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥58॥
या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥59॥ नमस्तस्यै॥60॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥61॥
जो देवी सब प्राणियोंमें जाति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥41-43॥ जो देवी सब प्राणियों में लज्जा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥44-46॥ जो देवी सब प्राणियों में शान्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥47-49॥ जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥50-52॥ जो देवी सब प्राणियों में कान्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥53-55॥ जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥56-58॥ जो देवी सब प्राणियों में वृत्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥59-61॥
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥62॥ नमस्तस्यै॥63॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥64॥
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥65॥ नमस्तस्यै॥66॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥67॥
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥68॥ नमस्तस्यै॥69॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥70॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥71॥ नमस्तस्यै॥72॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥73॥
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥74॥ नमस्तस्यै॥75॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥76॥
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥77॥
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै॥78॥ नमस्तस्यै॥79॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥80॥
स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥81॥
या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥82॥
जो देवी सब प्राणियों में स्मृति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥62-64॥ जो देवी सब प्राणियों में दया रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥65-67॥ जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥68-70॥ जो देवी सब प्राणियों में माता रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥71-73॥ जो देवी सब प्राणियों में भ्रान्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥74-76॥ जो जीवों के इन्द्रियवर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं, उन व्याप्ति देवी को बारम्बार नमस्कार है॥77॥ जो देवी चैतन्य रूप से इस सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥78-80॥ पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले॥81॥ उद्दण्ड दैत्यों से सताये हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषोंद्वारा स्मरण की जानेपर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें॥82॥
ऋषिरुवाच॥83॥
एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥84॥
साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥85॥
स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः॥86॥
शरीर*कोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥87॥
तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥88॥
ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥89॥
ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥90॥
नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर॥91॥
स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥92॥
ऋषि कहते हैं -॥83॥ राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी गंगा जी के जल में स्नान करने के लिये वहाँ आयीं॥84॥ उन सुन्दर भौंहों वाली भगवती ने देवताओं से पूछा - 'आप लोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं?' तब उन्हीं के शरीर कोश से प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं -॥85॥ 'शुम्भ दैत्यसे तिरस्कृत और युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हैं'॥86॥ पार्वती जी के शरीर कोश से अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिये वे समस्त लोकों में 'कौशिकी' कही जाती हैं॥87॥ कौशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वती देवी का शरीर काले रंग का हो गया, अतः वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से विख्यात हुईं॥88॥ तदनन्तर शुम्भ-निशुम्भ के भृत्य चण्ड-मुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करने वाली अम्बिका देवी को देखा॥89॥ फिर वे शुम्भ के पास जाकर बोले- 'महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्त्री है, जो अपनी दिव्य कान्ति से हिमालय को प्रकाशित कर रही है'॥90॥ वैसा उत्तम रूप कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा। असुरेश्वर! पता लगाइये, वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये॥91॥ स्त्रियों में तो वह रत्न है, उसका प्रत्येक अङ्ग बहुत ही सुन्दर है। तथा वह अपने श्रीअङ्गों की प्रभासे सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैला रही है। दैत्यराज! अभी वह हिमालयपर ही मौजूद है, आप उसे देख सकते हैं॥92॥
यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥93॥
ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥94॥
विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे।
रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥95॥
निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम्॥96॥
छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥97॥
मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥98॥
निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः।
वह्निरपि* ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥99॥
एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥100॥
प्रभो! तीनों लोकों में मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं, वे सब इस समय आपके घर में शोभा पाते हैं॥93॥ हाथियों में रत्नभूत ऐरावत, यह पारिजात का वृक्ष और यह उच्चैःश्रवा घोड़ा - यह सब आपने इन्द्र से ले लिया है॥94॥ हंसों से जुता हुआ यह विमान भी आपके आँगन में शोभा पाता है। यह रत्नभूत अद्भुत विमान, जो पहले ब्रह्माजी के पास था, अब आपके यहाँ लाया गया है॥95॥ यह महापद्म नामक निधि आप कुबेर से छीन लाये हैं। समुद्र ने भी आपको किञ्जल्किनी नामकी माला भेंट की है, जो केसरों से सुशोभित है और जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं॥96॥ सुवर्ण की वर्षा करने वाला वरुण का छत्र भी आपके घर में शोभा पाता है तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजापति के अधिकार में था, अब आपके पास मौजूद है॥97॥ दैत्येश्वर! मृत्युकी उत्क्रान्तिदा नामवाली शक्ति भी आपने छीन ली है तथा वरुण का पाश और समुद्र में होने वाले सब प्रकार के रत्न आपके भाई निशुम्भ के अधिकार में हैं। अग्नि ने भी स्वतः शुद्ध किये हुए दो वस्त्र आपकी सेवामें अर्पित किये हैं॥98-99॥ दैत्यराज! इस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिये हैं। फिर जो यह स्त्रियों में रत्नरूप कल्याणमयी देवी है, इसे आप क्यों नहीं अपने अधिकार में कर लेते?॥100॥
ऋषिरुवाच॥101॥
निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्॥102॥
इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥103॥
स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।
सा* देवी तां ततः प्राहश्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥104॥
दूत उवाच॥105॥
देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥106॥
अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह श्रृणुष्व तत्॥107॥
मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक्॥108॥
त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः।
तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम्॥109॥
क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥110॥
यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥111॥
स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥112॥
मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं च चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः॥113॥
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥114॥
ऋषि कहते हैं -॥101॥ चण्ड-मुण्डका यह वचन सुनकर शुम्भने महादैत्य सुग्रीवको दूत बनाकर देवीके पास भेजा और कहा - 'तुम मेरी आज्ञासे उसके सामने ये-ये बातें कहना और ऐसा उपाय करना जिससे प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहाँ आ जाय'॥102-103॥वह दूत पर्वतके अत्यन्त रमणीय प्रदेशमें जहाँ देवी मौजूद थीं, गया और मधुर वाणीमें कोमल वचन बोला॥104॥
दूत बोला -॥105॥ देवि! दैत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकों के परमेश्वर हैं। मैं उन्हींका भेजा हुआ दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ॥106॥ उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वर से मानते हैं। कोई उसका उल्लङ्घन नहीं कर सकता। वे सम्पूर्ण देवताओं को परास्त कर चुके हैं। उन्होंने तुम्हारे लिये जो संदेश दिया है, उसे सुनो॥107॥ 'सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे अधिकार में है। देवता भी मेरी आज्ञा के अधीन चलते हैं। सम्पूर्ण यज्ञों के भागों को मैं ही पृथक्-पृथक् भोगता हूँ॥108॥ तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं, वे सब मेरे अधिकार में हैं। देवराज इन्द्र का वाहन ऐरावत, जो हाथियों में रत्न के समान है, मैंने छीन लिया है॥109॥ क्षीर सागर का मन्थन करनेसे जो अश्वरत्न उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताओं ने मेरे पैरों पर पड़कर समर्पित किया है॥110॥ सुन्दरी! उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ देवताओं, गन्धर्वों और नागों के पास थे, वे सब मेरे ही पास आ गये हैं॥111॥ देवि! हम लोग तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानते हैं, अतः तुम हमारे पास आ जाओ; क्योंकि रत्नों का उपभोग करने वाले हम ही हैं॥112॥ चञ्चल कटाक्षों वाली सुन्दरी! तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाओ; क्योंकि तुम रत्नस्वरूपा हो॥113॥ मेरा वरण करने से तुम्हें तुलनारहित महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी। अपनी बुद्धि से यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाओ'॥114॥
ऋषिरुवाच॥115॥
इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥116॥
देव्युवाच॥117॥
सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः॥118॥
किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥119॥
यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥120॥
तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥121॥
ऋषि कहते हैं -॥115॥ दूतके यों कहने पर कल्याणमयी भगवती दुर्गा देवी, जो इस जगत्को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीरभाव से मुसकरायीं और इस प्रकार बोलीं -॥116॥
देवीने कहा -॥117॥ दूत! तुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। शुम्भ तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी के समान पराक्रमी है॥118॥ किंतु इस विषय में मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या कैसे करूँ? मैंने अपनी अल्प बुद्धि के कारण पहले से जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे सुनो -॥119॥ 'जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, जो मेरे अभिमान को चूर्ण कर देगा तथा संसार में जो मेरे समान बलवान् होगा, वही मेरा स्वामी होगा'॥120॥ इसलिये शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं ही यहाँ पधारें और मुझे जीतकर शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्ब की क्या आवश्यकता है?॥121॥
दूत उवाच॥122॥
अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥123॥
अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥124॥
इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥125॥
सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥126॥
देव्युवाच॥127॥
एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चातिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥128॥
स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत्॥ॐ॥129॥
दूत बोला -॥122॥ देवि! तुम घमंड में भरी हो, मेरे सामने ऐसी बातें न करो। तीनों लोकों में कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ- निशुम्भ के सामने खड़ा हो सके॥123॥ देवि! अन्य दैत्यों के सामने भी सारे देवता युद्ध में नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो॥124॥ जिन शुम्भ आदि दैत्यों के सामने इन्द्र आदि सब देवता भी युद्ध में खड़े नहीं हुए, उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाओगी॥125॥ इसलिये तुम मेरे ही कहने से शुम्भ निशुम्भ के पास चली चलो। ऐसा करने से तुम्हारे गौरव की रक्षा होगी; अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा॥126॥
देवीने कहा -॥127॥ तुम्हारा कहना ठीक है, शुम्भ बलवान् हैं और निशुम्भ भी बड़े पराक्रमी हैं; किंतु क्या करूँ? मैंने पहले बिना सोचे-समझे प्रतिज्ञा कर ली है॥128॥ अतः अब तुम जाओ; मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब दैत्यराज से आदरपूर्वक कहना। फिर वे जो उचित जान पड़े, करें॥129॥
