दुर्गा सप्तशती - महत्वपूर्ण बातें
दुर्गा सप्तशती के पाठ से पहले इसके कीलन को जानकर उसका परिहार करके ही सप्तशती का पाठ आरम्भ करें। जो ऐसा नहीं करता, उसका नाश हो जाता है। इसीलिये कीलक और निष्कीलन का ज्ञान प्राप्त करने पर ही यह स्तोत्र निर्दोष होता है और विद्वान पुरुष इस निर्दोष स्तोत्र का ही पाठ आरम्भ करते हैं।
जो साधक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी को एकाग्रचित्त होकर भगवती की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसाद रूप से ग्रहण करता है, उसी पर भगवती प्रसन्न होती है; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार सिद्धि के प्रतिबन्धक रूप कील के द्वारा महादेवजी ने इस स्तोत्र को कीलित कर रखा है।
अज्ञानवश पुस्तक हाथ में लेकर पाठ करने का फल आधा ही होता है। स्तोत्र का पाठ मानसिक नहीं, वाचिक होना चाहिये। वाणी से उसका स्पष्ट उच्चारण ही उत्तम माना गया है।*बहुत जोर-जोर से बोलना तथा पाठ में उतावली करना वर्जित है। यत्नपूर्वक शुद्ध एवं स्थिरचित्तसे पाठ करना चाहिये।*यदि पाठ कण्ठस्थ न हो तो पुस्तक से करें। अपने हाथ से लिखे हुए अथवा ब्राह्मणेतर पुरुष के लिखे हुए स्तोत्र का पाठ न करें।*यदि एक सहस्र से अधिक श्लोकों का या मन्त्रों का ग्रन्थ हो तो पुस्तक देखकर ही पाठ करें; इससे कम श्लोक हों तो उन्हें कण्ठस्थ करके बिना पुस्तक के भी पाठ किया जा सकता है।*अध्याय समाप्त होने पर "इति", "वध", "अध्याय" तथा "समाप्त" शब्दका उच्चारण नहीं करना चाहिये।*
इस प्रकार एक सप्ताह में दुर्गा सप्तशती का पाठ निम्न प्रकार से करना चाहिए-
1. पहले दिन - 1 अध्याय (पहला)
2. दूसरे दिन - 2 अध्याय (दूसरा और तीसरा)
3. तीसरे दिन - 1 अध्याय (चौथा)
4. चौथे दिन - 4 अध्याय (पाँचवाँ, छठवाँ, सातवाँ और आठवाँ)
5. पांचवें दिन - 2 अध्याय (नौवाँ और दसवाँ)
6. छठवें दिन - 1 अध्याय (ग्यारहवाँ)
7. सातवें दिन - 2 अध्याय (बारहवाँ और तेरहवाँ)
8. अष्टम दिन - मूर्ति रहस्य, हवन व क्षमा प्रार्थना
9. नवम दिवस - कन्याभोज इत्यादि।
